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धर्म का व्यक्तिगत और सामाजिक स्वरूप, क्या धर्म आज भी उतना ही प्रासंगिक है?

धर्म एक ऐसा शब्द है जो भारतीय संस्कृति और जीवन दर्शन में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह केवल पूजा-पाठ, मंदिर, मस्जिद या गिरजाघर तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक व्यापक और गूढ़ जीवन पद्धति है। धर्म का अर्थ समय, स्थान और परिस्थिति के अनुसार अलग-अलग हो सकता है, लेकिन इसका मूल उद्देश्य मानव को नैतिक, सच्चरित्र और सदाचारी बनाना होता है।

धर्म की परिभाषा

संस्कृत में “धर्म” शब्द “धृ” धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है – धारण करना या बनाए रखना। अर्थात जो इस सृष्टि को धारण करता है, जो समाज को व्यवस्थित और संतुलित बनाए रखता है, वही धर्म है। महाभारत में भी कहा गया है – “धारणात् धर्म इत्याहुः” अर्थात जो धारण करने योग्य है, वही धर्म है।

धर्म का संबंध किसी विशेष पूजा-पद्धति से नहीं, बल्कि हमारे आचरण, व्यवहार, विचार और जीवन के हर पहलू से है। यह मानव जीवन को एक दिशा देने वाला तत्व है।

धर्म के प्रमुख तत्व

धर्म के कई रूप और प्रकार हो सकते हैं, लेकिन इसके कुछ प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं:

  1. सत्य (Truth): धर्म का मूल आधार सत्य है। सत्य की खोज और पालन हर धार्मिक मार्ग में अनिवार्य माना गया है।
  2. अहिंसा (Non-violence): किसी भी प्राणी को बिना कारण कष्ट न पहुँचाना धर्म का प्रमुख लक्षण है।
  3. सदाचार (Good Conduct): सदाचारी जीवन, जिसमें संयम, विनम्रता, सेवा, और दया भाव हो, वह धर्म है।
  4. कर्तव्यनिष्ठा (Duty): प्रत्येक व्यक्ति का जो सामाजिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत कर्तव्य है, उसका पालन करना धर्म है।
  5. संवेदना और करुणा (Compassion): दूसरों के दुख में सहभागी होना और सहायता के लिए तत्पर रहना भी धर्म का हिस्सा है।

धर्म और मजहब में अंतर

अक्सर लोग धर्म और मजहब को एक ही समझ लेते हैं, जबकि दोनों में महत्वपूर्ण अंतर है। मजहब एक विशेष धार्मिक परंपरा, जैसे हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि से जुड़ा होता है, जिसमें कुछ निश्चित रीति-रिवाज, पूजा-पद्धति और ग्रंथ होते हैं। जबकि धर्म एक सार्वभौमिक मूल्य प्रणाली है जो जीवन को संतुलित, नैतिक और सदाचारी बनाती है। धर्म सार्वभौमिक होता है, जबकि मजहब सीमित और विशिष्ट होता है।

भारतीय दृष्टिकोण में धर्म

भारतीय दर्शन में धर्म को चार पुरुषार्थों में एक माना गया है — धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। यहाँ धर्म को जीवन की मूलभूत आवश्यकता के रूप में देखा गया है। धर्म के बिना अर्थ और काम का कोई मूल्य नहीं माना गया। यह जीवन को दिशा देने वाली शक्ति है।

मनुस्मृति में धर्म के दस लक्षण बताए गए हैं:

  1. धृति (धैर्य)
  2. क्षमा (क्षमा करना)
  3. दम (इंद्रियों पर नियंत्रण)
  4. अस्तेय (चोरी न करना)
  5. शौच (शुद्धता)
  6. इन्द्रियनिग्रह (इंद्रिय संयम)
  7. धी (बुद्धिमत्ता)
  8. विद्या (ज्ञान)
  9. सत्य (सत्य बोलना)
  10. अक्रोध (क्रोध न करना)

इन गुणों को अपनाकर कोई भी व्यक्ति धार्मिक बन सकता है, चाहे वह किसी भी जाति, धर्म या वर्ग का हो।

धर्म का आधुनिक संदर्भ

आज के समय में धर्म को अक्सर राजनीति, संकीर्णता और कट्टरता से जोड़ा जाने लगा है। इससे धर्म की वास्तविक भावना कहीं खो सी गई है। धर्म का उद्देश्य मानवता को जोड़ना है, न कि तोड़ना। धर्म हमें यह सिखाता है कि हम सभी एक ही ईश्वर की संतान हैं और हमारे बीच कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए।

धर्म का पालन केवल पूजा-पाठ करने तक सीमित नहीं है, बल्कि सच्चे अर्थों में धार्मिक वही है जो अपने कर्तव्यों का पालन करे, सत्य बोले, अन्याय के खिलाफ खड़ा हो, और दूसरों के दुख-दर्द को अपना समझे।

धर्म और विज्ञान

बहुत लोग धर्म और विज्ञान को परस्पर विरोधी मानते हैं, लेकिन वास्तव में दोनों एक-दूसरे के पूरक हो सकते हैं। जहाँ विज्ञान भौतिक जगत की व्याख्या करता है, वहीं धर्म आत्मा, चेतना और मूल्यों की बात करता है। विज्ञान बाहरी दुनिया को समझने का माध्यम है, तो धर्म आंतरिक आत्मा को जानने का रास्ता है।

धर्म एक सार्वभौमिक और सर्वकालिक सत्य है। यह केवल पूजा-पद्धति या धार्मिक ग्रंथों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक जीवन पद्धति है जो मानव को श्रेष्ठ बनने की प्रेरणा देता है। धर्म का वास्तविक उद्देश्य है – प्रेम, करुणा, न्याय, सत्य और सेवा। अगर हम इन मूल्यों को अपने जीवन में अपनाएं, तो न केवल हम स्वयं सुखी रह बल्कि पूरे विश्व को सुख रहने का रास्ता दिखा सकत्र हैं।

इसलिए, धर्म को केवल किसी विशेष पोशाक, भाषा या रीति से न आंकें, बल्कि उसके मूल में छिपे प्रेम, सद्भाव और नैतिकता को समझें। यही सच्चा धर्म है।

धर्म का व्यक्तिगत और सामाजिक स्वरूप, क्या धर्म आज भी उतना ही प्रासंगिक है?

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